जयपुर। कांग्रेस आलाकमान मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री पद के दावेदारों को टिकट नहीं देगा. पार्टी का यह फैसला दूरगामी सोच वाला माना जा रहा है क्योंकि कहा जा रहा है कि आपसी खींचतान का अंदेशा होने के कारण पार्टी ने यह कठोर फैसला लिया है. अगर मुख्यमंत्री के दावेदार ज्योतिरादित्य सिंधिया, कमलनाथ और दूसरों को टिकट नहीं मिलता है तो यह साफ है कि इस बार के चुनाव खासे रोचक रहने वाले हैं. गुटबाजी में फंसी कांग्रेस ने जो शुरुआत मध्य प्रदेश से की है, वह रणनीति दूसरे प्रदेशों में भी देखी जा सकती है.
राजस्थान में भी पार्टी अपनाएंगी समान नीति?
बड़ा सवाल यह है कि क्या कांग्रेस आलाकमान राजस्थान में भी मध्य प्रदेश वाला फॉर्मूला अपनाने जा रहा है. क्या राजस्थान में भी अशोक गहलोत और सचिन पायलट जैसे नेताओं के साथ-साथ सीपी जोशी और भंवर जितेंद्र सिंह जैसे बड़े नेताओं को टिकट ना देकर पार्टी को जिताने का जिम्मा ही सौंपा जाएगा. ऐसा संभव नहीं है कि किसी एक नेता को टिकट दे दिया जाए और बाकियों को मना कर दिया जाए. इस लिए पार्टी के नेता मान रहे है कि या तो राजस्थान में यह फॉर्मूला लागू नहीं होगा और अगर लागू हुआ तो तमाम बड़े नेताओं के टिकट इसकी जद में आ जाएंगे.
क्या है राजस्थान की स्थिति?
राजस्थान की स्थिति भी पार्टी के लिए खासी सुखद नहीं है. हालांकि सत्ता विरोधी लहर के कारण कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के हौसले बुलंद है लेकिन गुटबाजी के चलते राह आसान नहीं है. खुद राहुल गांधी कई बार मंच से स्वीकार कर चुके हैं कि पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के बीच तारतम्य नहीं है. राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच मनमुटाव के किस्से पीसीसी कार्यालय में गूंजते रहते हैं.
कार्यकर्ताओं के बीच भ्रम
इन वजहों से राजस्थान के कांग्रेस कार्यकर्ता इस दुविधा में है कि बीजेपी से तो जीत जाएंगे, लेकिन अपने नेताओं से किस तरह पार पाई जाए. हालांकि गहलोत और पायलट “एकता” जताने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं, लेकिन अंदरखाने में दोनों की खींचतान के किस्से खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे है. चुनाव के मुहाने पर भी कार्यकर्ताओं और नेताओं के बीच इस बात की चर्चा आम है कि अगर पार्टी सत्ता में आई तो पायलट और गहलोत में से मुख्यमंत्री कौन होगा.
रास्ता निकालने की कोशिश
रणनीतिकारों का मानना है कि आलाकमान के लिए अच्छा यह है कि इन मुद्दों के मद्देनजर नेताओं को समझाते हुए मध्य प्रदेश की तर्ज पर इनको चुनाव लड़ने से दूर रखे. पार्टी की यह रणनीति असरदार हो सकती है क्योंकि इससे एक तरफ अंदरूनी काट नहीं होगी और दूसरी तरफ जब कार्यकर्ता भ्रम में नहीं होगा तो चुनावी लड़ाई के लिए ज्यादा फोकस किया जा सकेगा.