नई दिल्ली। उदारीकरण (Liberalisation) की जिस राह पर भारत ने 90 के दशक में कदम बढ़ाए थे, आज (24 July 1991) को उस सफर के 30 साल मुकम्मल हो गए हैं. तीन दशक एक फैसले का असर जानने के लिए बहुत वक्त होता है. क्या बदला है उस भारत में जिसने आजादी के बाद आर्थिक मॉडल के रूप में समाजवाद की विचारधारा के साथ चलना स्वीकार किया.
भारत में भी ऐसे ही एक विचार को लागू करने का समय आ गया था, जो इंडिया तकदीर को बदलने जा रहा था.
शाम के पांच बज रहे थे, संसद का बजट सत्र चल रहा था. तारीख थी 24 जुलाई 1991. देश में कांग्रेस की सरकार थी. जो कुछ ही दिन पहले सत्ता संभाली थी और इसने बड़ी मुश्किल से बहुमत साबित किया था. समर्थन के मोर्चे पर डगमगा रही इस सरकार के सामने आर्थिक चुनौतियां खाई की तरह थी. इस सरकार की बागडोर थी कद्दावर कांग्रेसी नेता पीवी नरसिम्हा राव के हाथ में. उन्होंने देश का हिसाब किताब चलाने के लिए वित्त मंत्री के रूप में चुना पूर्व पीएम चंद्रशेखर के आर्थिक सलाहकार रहे डॉ मनमोहन सिंह को.
क्या स्मार्टफोन वाली पीढ़ी को पता है, कभी लैंडलाइन फोन की थी वेटिंग लिस्ट
क्या 21वीं सदी में पैदा हुई भारत के यंगिस्तान को ये पता भी है कि कभी लैंडलाइन फोन की वेटिंग लिस्ट हुआ करती थी? हफ्ते नहीं महीनों तक? कई बार साल भी. तब फोन स्टेट्स सिंबल था. आपके घर में डिजाइनर डायल फोन का होना आपको इंडियन मिडिल क्लास की सम्मानजनक कैटेगरी में पहुंचा देता था.
इसे आप ऐसे समझें. आज आप कभी भी (24×7) स्मार्टफोन खरीद सकते हैं. मार्केट में ठेले पर सिम कार्ड बेच रहा लड़का गुहार लगा लगाकर आपसे सिमकार्ड खरीदने की मनुहार करेगा. वह 100 रुपये में आपके सामने देश की दिग्गज कंपनियों का सिम खरीदने का विकल्प दे देगा. कॉलिंग आपको फ्री मिलेगी. बस आपके पास एक आधार कार्ड चाहिए.
इस ‘लग्जरी’ को एन्ज्वॉय कर रहे आज के युवा को कभी उनसे मिलना चाहिए जिन्होंने 70, 80 और 90 के दशक में अपनी जवानी गुजारी है.
कार, स्कूटर, सीमेंट खरीदने के लिए चाहिए थी सरकारी अनुमति
क्या आप ये जानते हैं कि कभी देश में सिर्फ फिएट, एम्बेसडर और स्टैंडर्ड नाम की कंपनी की कारें बनाती थी, मारुति तो संजय गांधी बाद में लेकर आए. तब सरकार तय करती थी कि कितनी कारें बनेंगी और उसकी कीमत कितनी होगी. इन कारों को खरीदने के लिए आपका धनवान होना ही काफी नहीं था. आपको सरकारी दफ्तर के चक्कर काटने पड़ते थे, इसे खरीदने के लिए लाइसेंस लेना पड़ता था, सरकारी बाबू से मान-मनोव्वल करनी पड़ती थी. ये सब तब, जब आप अपनी वैध कमाई पर अपने लिए एक गाड़ी खरीदना चाहते थे.
स्कूटर की सवारी भी आसान नहीं थी. लाइसेंस लेकर ही आप इसे खरीद सकते थे. आप यह जानकर हैरान हो सकते हैं कि 80 के दशक में मकान बनाने के लिए लगने वाले सीमेंट को खरीदने के लिए इंस्पेक्टर की अनुमति लेनी पड़ती थी. और तो और शादी ब्याह में अगर आपको एक्स्ट्रा चीनी चाहिए थी तो भी इसके लिए परमिशन जरूरी थी.
समाजवादी जकड़न में बाजार कराह रहा था
तो ऐसा था 90 के दशक से पहले का जमाना. आपकी हर आर्थिक गतिविधि में सरकारी घुसपैठ थी. हर खरीद में परमिट और परमिशन. स्वतंत्र बाजार का अस्तित्व ही नहीं बन पाया था. बाजार को सरकारें सख्ती से कंट्रोल करती थी. डिमांड और सप्लाई के इकोनॉमिक्स के नियम यहां बेमानी थे.
समाजवादी संरक्षण के पक्ष में ये तर्क दिया जाता था कि जिस तरह नए-नए लगाए गए पौधे को बाड़बंदी के जरिए बाहरी तत्वों से सुरक्षित रखने की कोशिश की जाती है उसी तरह आजादी के बाद भारत में नए-नए पनप रहे सरकारी उद्योगों और उपक्रमों को संरक्षण के जरिए इस कदर बनाया जा रहा था कि वो विदेशी और निजी पूंजी का मुकाबला कर सके. भारत के संदर्भ में तब तो ये बात तो कुछ हद तक ठीक थी. लेकिन संरक्षण का ये दौर इतना लंबा चला कि अपने दम पर खड़े होने के बजाए ये कंपनियां पैकेज और बेलआउट जैसे बैसाखी की आदी हो गईं.
फर्ज कीजिए आज सरकार बाइक बनाने कंपनी होंडा या बजाज से कहे कि आप इस महीने इतने बाइक बना सकते हैं, इसके लिए आप इतना स्टील खरीद/आयात कर सकते हैं. इन बाइक्स की कीमत आपको इतनी रखनी होगी.
ये कल्पना आपको एकदम असंभव सी लगेगी. लेकिन ये सच है. आज से 30 पहले हमारे यहां बिजनेस का कायदा-कानून इसी तरह था. इस व्यवस्था को किताबों में इंस्पेक्टर और परमिट राज कहते हैं.
क्या है अर्थव्यवस्था का समाजवादी मॉडल
‘क्लोज्ड इकोनॉमी’ समाजवादी मॉडल या कथित आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था की पैरवी करने वाला भारत खुली अर्थव्यवस्था की राह पर चलने को क्यों मजबूर हुआ? इसे बताने से पहले हम आपको बताते हैं कि इकोनॉमी का समाजवादी मॉडल क्या होता है?
दरअसल समाजवादी अर्थव्यवस्था से अभिप्राय एक ऐसी आर्थिक प्रणाली से है, जिसमें उत्पति के सभी साधनों पर सरकार का स्वामित्व होता है. इस सिस्टम में आर्थिक गतिविधियों का संचालन एक केन्द्रीय सता करती है और इसका घोषित उद्देश्य सामूहिक हित और कल्याण होता है. वहीं ‘क्लोज्ड इकोनॉमी’ वैसी अर्थव्यवस्था है, जो बाहर की अर्थव्यवस्थाओं से किसी तरह की आर्थिक लेन-देन नहीं करती है. भारत की तत्कालीन अर्थव्यवस्था इन दोनों का मिश्रण थी.
इसके विपरित खुली अर्थव्यवस्था में सरकार पूंजी के प्रवाह पर अंकुश नहीं लगाती है. निजी कंपनियों की काम करने की आजादी रहती है. सरकारें प्राइवेट आंत्रप्रन्योरशिप को प्रोत्साहन देती है. स्टार्ट अप, शेयर मार्केट को छूट दी जाती है. सरकार अपने निवेश कम करती है, और खुले मार्केट को बढ़ावा दिया जाता है. यानी कि सब कोई कुछ भी वैध काम करने को स्वतंत्र होता है.
1991 की पॉलिटिक्स समझे बिना अधूरी है कहानी
1991 भारतवर्ष की विकास यात्रा में वो मोड़ है जहां से न सिर्फ आर्थिक से बल्कि सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक रूप से भी सब कुछ बदलने वाला था. देश में साझी सरकारों का दौर 1989 से ही शुरू हो गया था. 15 अगस्त 1990 को पीएम बने वीपी सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने की घोषणा कर थी. इधर बीजेपी राम मंदिर के लहर पर सवार थी.
7 नवंबर 1990 को वीपी सिंह की सरकार गिर गई. इसके बाद चंद्रशेखर देश के पीएम बने. कुछ ही दिन में चंद्रशेखर की सरकार भी गिर गई. देश में चुनाव की घोषणा हुई लेकिन इसी दौरान पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की 21 मई 1991 को हत्या हो गई. देश को गहरा धक्का लगा. इसी माहौल में आम चुनाव हुआ और पीएम का ताज मिला राजनीति से रिटायरमेंट की तैयारी कर रहे पीवी नरसिम्हा राव को. जी हां, राजीव गांधी ने इस चुनाव में पीवी नरसिम्हा राव का टिकट काट दिया था और वे आंध्र प्रदेश शिफ्ट होने की तैयारी कर रहे थे.
एक बार हमारा भारतवर्ष डिफॉल्टर होने की कगार पर था
21 जून 1991 को पीवी नरसिम्हा राव भारत के प्रधानमंत्री बने. उनके वित्त मंत्री थे डॉ मनमोहन सिंह. बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार तत्कालीन कैबिनेट सचिव नरेश चंद्रा ने पीवी नरसिम्हा राव को देश की माली हालत समझाते हुए कहा कि भारत के पास आयात बिल भरने की किल्लत हो गई है. देश के पास मात्र दो से तीन हफ्ते तक का इंपोर्ट बिल भरने जितनी विदेशी मुद्रा बची थी. अगर भारत अपने लघु अवधि के कर्जों का भुगतान नहीं करता तो अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारत डिफॉल्टर घोषित हो सकता था. बता दें कि सिकंदर का देश ग्रीस भी 2015-16 में ऐसी ही स्थिति में पहुंच गया था.
मात्र 2500 करोड़ रुपये था विदेशी मुद्रा भंडार
बजट पेश करते हुए डॉ मनमोहन सिंह ने इस आर्थिक आपातकाल को खुद स्वीकार किया. उन्होंने संसद में कहा था, ” दिसंबर 1990 से ही भुगतान संतुलन लुढ़क रहा है. 2500 करोड़ रुपये का विदेशी मुद्रा का मौजूदा स्तर एक पखवाड़े के आयात के लिए ही पर्याप्त है.”
देश के पास खोने के लिए वक्त नहीं है
आप उम्मीद कर सकते हैं कि भारत जैसे विशाल देश की इस जर्जर अर्थव्यवस्था को संसद में रखना सरकार के लिए कितना पीड़ादायी रहा होगा. डॉ मनमोहन सिंह ने बजट भाषण में आर्थिक सुधारों की अहमियत बताते हुए कहा था, “खोने के लिए देश के पास कोई समय नहीं है, साल दर साल न तो सरकार और न ही अर्थव्यवस्था अपने संसाधनों से परे जाकर चलती रह सकती है. उधार लिए गए पैसे या वक्त पर निर्भर रहने का अब कोई वक्त नहीं रह गया है.”
देश ने 67000 किलो सोना गिरवी रखकर बिल भरा
साल 1991 में भारत का भुगतान संतुलन इतना बिगड़ा कि देश को दो बार सोना गिरवी रखना पड़ा.
पहली बार सोना तब गिरवी रखा गया जब यशवंत सिन्हा देश के वित्त मंत्री और चंद्रशेखर प्रधानमंत्री थे. अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों ने भारत की रेटिंग नीचे कर दी थी.
भारत को अपने शॉर्ट टर्म कर्जे रीशेड्यूल करने पड़े थे. ऐसी नौबत आ गई थी कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारत के डिफॉल्टर हो जाने का खतरा पैदा हो गया था.
इस मुश्किल घड़ी में वित्त मंत्रालय में संयुक्त सचिव वाई वी रेड्डी ने अंतिम विकल्प के रूप में सोने को गिरवी रखने की सलाह दी. भारत के पास तब तस्करों से जब्त सोना था. कुल मिलाकर 20 मीट्रिक टन यानी कि 20 हजार किलो सोने को गिरवी रखने पर सहमति बनी. बता दें कि 1991 में 24 कैरेट सोने की कीमत लगभग 3450 रुपये प्रति 10 ग्राम थी. 30 साल के बाद आज सोना लगभग 50 हजार रुपये प्रति 10 ग्राम बिक रहा है.
सोने को गिरवी रखने के दस्तावेज पर वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने पटना में रहते हुए हस्ताक्षर किया. इस सोने को चुपके से 21 मई से 31 मई 1991 के बीच स्विट्जरलैंड के यूबीएस बैंक में गिरवी रख दिया गया. इस सोने से देश को 200 मिलियन डॉलर यानी कि 20 करोड़ डॉलर मिले. आज के हिसाब से ये रकम बहुत कम मालूम होती है. मुंबई के शेयर बाजार में इससे ज्यादा की ट्रेडिंग तो कुछ घंटों में हो जाती है.
तब महंगा मालूम होता था 14 रुपये 62 पैसे लीटर पेट्रोल
लेकिन गिरवी रखी गई सोने की ये खेप भारत की अर्थव्यवस्था के लिए कोई खास राहत लेकर नहीं आई. जून 1991 में पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व में नई सरकार आई. 1990 में हुए खाड़ी युद्ध का दोहरा असर भारत पर पड़ा था. खाड़ी देशों में काम करने वाले भारत के कामगारों को वापस बुलाना पड़ा था इस वजह जो विदेशी मुद्रा ये देश भेजते थे वो बंद हो गई थी. पेट्रोल डीजल के दाम तीन गुना बढ़ गए थे. जुलाई 1991 में दिल्ली में पेट्रोल की कीमतें 14 रुपये 62 पैसे प्रति लीटर थीं, डीजल की कीमत 5.50 रुपये के आस-पास थी. तेल के आयात पर महीने खर्च होने वाला 500 करोड़ 1200 करोड़ पर पहुंच गया था.
सरकार के सामने एक बार फिर भुगतान संकट पैदा हुआ. देश के पास मात्र 20 दिनों का आयात बिल चुकाने भर की विदेशी मुद्रा रह गई थी. संकट की इस घड़ी सोना एक बार फिर सोना साबित हुआ. देश ने मात्र 40 करोड़ डॉलर के एवज में 47000 किलो यानी 47 टन सोना गिरवी रख दिया. इस फैसले की जानकारी तक देश को नहीं दी गई थी.
जब इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार शंकर अय्यर ने ये खबर ब्रेक की तो लोग दंग रह गए. ये एक भारतीय के लिए भावुक क्षण था कि देश का खर्चा चलाने के लिए 67000 किलो सोना गिरवी रखना पड़ा था. वो भी चुपचाप, देश को बताए बिना.
बजट के साथ आया LPG का कॉन्सेप्ट
इस बजट के साथ ही सरकार अर्थव्यवस्था के लिए LPG यानी कि Liberalisation (उदारीकरण), Privatisation (निजीकरण) और Globalisation (वैश्वीकरण) का कॉन्सेप्ट लेकर आई.
उदारीकरण का अर्थ यह है कि सरकार ने व्यवसाय के नियमों को उदार बनाया. बिजनेस में सरकारी हस्तक्षेप को कम कर बाजार प्रणाली पर निर्भरता को बढ़ाया गया. अब बिजनेस की गतिविधियों को सरकार की जगह बाजार तय करने लगा.
निजीकरण का मतलब यह हुआ कि सार्वजनिक स्वामित्व की कंपनियों में सरकार की हिस्सेदारी घटाना और सरकार का हिस्सा प्राइवेट कंपनियों को बेचना. देश में आए दिन रेलवे के निजीकरण से जुड़ी चर्चाएं आती रहती है.
वैश्वीकरण शब्द का मतलब अर्थव्यवस्थाओं की दूरी को खत्म करना है. इसके सामाजिक और सांस्कृतिक अर्थ भी हैं. लेकिन आर्थिक अर्थ में वैश्वीकरण की प्रक्रिया के अन्तर्गत वस्तुओं एवं सेवाओं के एक देश से दूसरे देश में आने एवं जाने के अवरोधों को समाप्त कर दिया जाता है.
LPG अर्थव्यवस्था का ऐसा मॉडल था जिसे आज भी हमारा देश फॉलो कर रहा है, बल्कि यूं कहें कि इसके सिद्धांतों पर अब और जोर दिया जा रहै है.
एलपीजी के मॉडल को कामयाब बनाने के लिए नरसिम्हा राव की सरकार ने इस बजट में कई और क्रांतिकारी फैसले लिए.
सरकार ने खाद पर दी जाने वाली सब्सिडी को कम 40 फीसदी कम कर दिया.
चीनी पर दी जाने वाली सब्सिडी खत्म कर दी गई. इससे सरकार ने 350 करोड़ रुपये बचाए.
रणनीतिक और सामरिक महत्व के 18 उद्योगों को छोड़कर बाकी सभी उद्योगों में लाइसेंसिंग का नियम खत्म कर दिया गया.
34 उद्योगों में विदेशी निवेश की सीमा को 40 प्रतिशत से बढ़ाकर 51 कर दिया गया. पूंजी लगाने वाली विदेशी कंपनियों को उद्योगों के मैनेजमेंट में नियंत्रण की क्षमता हासिल होने वाली थी.
बजट ने आयात-निर्यात नीति को बदल दिया. इसका उद्देश्य आयात में ढील देना और निर्यात को प्रश्रय देना था.
आयात शुल्क को 300% से घटाकर 150% करना.
सीमा शुल्क को भी 220% से घटाकर 150% करना.
सॉफ्टवेयर उद्योग को बढ़ावा
समाजवादी अर्थव्यवस्था में जो उद्योग संरक्षण के दम पर चल रहे थे सरकार उससे अचानक हाथ खींचने लगी. विदेशी कंपनियों का स्वागत किया गया, निजी कंपनियां भी मार्केट में आई. जिस सॉफ्टवेयर कंपनियों की ऊंची ऊंची इमारतें आज नोएडा, गुरुग्राम, बेंगलुरु और हैदराबाद में दिखती हैं, उनकी नींव इसी बजट में डाली गई थी. सरकार ने इस बजट में सॉफ्टवेयर के निर्यात के लिए आईटी एक्ट की धारा 80 एचएचसी के तहत टैक्स में छूट का ऐलान किया.
इसके साथ ही देश में पहली बार विदेशी पूंजी ने डरते-सहमे कदम रखा. 1991 के भारत में 90 करोड़ भारतीयों ने इस पूंजी का स्वागत किया. नए उद्योग आए, करोड़ों लोगों को नौकरियां मिलीं और भारत में पहली बार करोड़ों लोग गरीबी रेखा की लज्जाजनक दीवार को फांद मुख्यधारा में शामिल हुए. वर्ल्ड बैंक के अनुसार 2006 से 2016 के बीच 27.10 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर निकले.
और वापस आ गया बंधक रखा हुआ सोना
इस बजट ने देश का आर्थिक माहौल बदलना शुरू कर दिया. सबसे पहली कामयाबी तो 1991 में ही दिसंबर के महीने में मिली जब सरकार ने विदेशों में गिरवी रखा सोना फिर से खरीदकर आरबीआई को सौंप दिया.
इस बजट के अंत में डॉ मनमोहन सिंह ने सदन को संबोधित करते हुए कहा था कि मैं उन कठिनाइयों को कम करके नहीं आंकना चाहता जो इस कठिन और लंबी यात्रा के दौरान हमें मिलने वाली है. लेकिन इतिहास ने साबित कर दिया है कि पीवी नरसिम्हा राव और डॉ मनमोहन सिंह इस सफर पर मजबूत और सधे कदमों के साथ आगे बढ़े और उस न्यू इंडिया की नींव रखी, जिसकी इमारत आज बुलंद हो चुकी है.
कांग्रेस ने नहीं छोड़ी समाजवाद की लोककल्याणकारी नीतियां
1991 में जब कांग्रेस सरकार उदारीकरण के रास्ते पर चली तो पीवी नरसिम्हा राव और डॉ मनमोहन सिंह पर महात्मा गांधी और नेहरू के लोककल्याणकारी राज्य के सिद्धांत को तिलांजलि देने का आरोप लगे. इसमें वामपंथी दल तो थे ही, बीजेपी भी सरकार पर गरीबों को बाजार के भरोसे छोड़ने का आरोप लगा रही थी.
2004 में कांग्रेस फिर सत्ता में आई तो इस बार डॉ मनमोहन सिंह पीएम थे. कांग्रेस ने 10 साल के शासनकाल में कई ऐसी योजना लेकर आई जिसमें उसी समाजवाद की छाप दिखती थी जिसके पैरोकार गांधी और नेहरू थे. इनमें मनरेगा, भोजन का अधिकार, सूचना का अधिकार जैसे जनोन्मुखी कार्यक्रम शामिल हैं.