क्या ‘ठाकरे मुक्त’ शिवसेना बनाने की ओर बढ़ रहे एकनाथ शिंदे, ये है प्रक्रिया

महाराष्ट्र में चल रहे चार दिनों से सियासी उठापटक के बीच अब उद्धव ठाकरे की कुर्सी जानी तय है. शिवसेना के दो तिहाई विधायकों को लेकर एकनाथ शिंदे मुंबई से 2700 किमी दूर गुवाहाटी में कैंप कर रखा है. ऐसे में शिवसेना में अब दो फाड़ के आसार बनते दिख रहे हैं और बागी विधायकों को दलबदल कानून का भी खतरा नहीं है. इस तरह उद्धव के हाथों से महाराष्ट्र की सत्ता के साथ-साथ शिवसेना को ‘ठाकरे मुक्त’ बनाने की दिशा में एकनाथ शिंदे कदम बढ़ा रहे हैं.

एकनाथ शिंदे भी शिवसेना के दो तिहाई विधायकों को अपने साथ जोड़ रखा है और अब अगला कदम पार्टी को अपने हाथों में लेने का है. ऐसे में गुवाहाटी में मौजूद शिवसेना के बागी विधायकों ने बैठक कर एकनाथ शिंदे को विधायक दल का अपना नेता चुन लिया है. साथ ही बागी गुट के विधायकों के हस्ताक्षर वाला पत्र डिप्टी स्पीकर नरहरि जिरवाल और राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी को भेजा दिया है, जिसमें कहा गया कि असली शिवसेना ये है. इससे साफ है कि शिवसेना पर काबिज होने के लिए पार्टी के चुनाव चिह्न और झंडे को लेकर भी घमासान छिड़ सकता है.

बागी नेता शिंदे के साथ विधायकों की संख्या इतनी है कि अगर शिवसेना में दो फाड़ होते हैं तो उन पर दलबदल कानून का भी खतरा नहीं होग. 2019 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में शिवसेना के 56 विधायक जीते थे, जिनमें से एक विधायक का निधन हो चुका है. इसके चलते 55 विधायक फिलहाल शिवसेना के हैं. ऐसे में एकनाथ शिंदे का दावा है कि उनके साथ 37 विधायक शिवसेना के हैं. इस तरह से एकनाथ शिंदे अगर कोई कदम उठाते हैं तो दलबदल कानून के तहत कार्रवाई भी नहीं होगी.

दरअसल, दलबदल कानून कहता है कि अगर किसी पार्टी के कुल विधायकों में से दो-तिहाई के कम विधायक बगावत करते हैं तो उन्हें अयोग्य करार दिया जा सकता है. इस लिहाज से शिवसेना के पास इस समय विधानसभा में 55 विधायक हैं. ऐसे में दलबदल कानून से बचने के लिए बागी गुट को कम के कम 37 विधायकों (55 में से दो-तिहाई) की जरूरत होगी जबकि  शिंदे अपने साथ 37 विधायकों का दावा कर रहे हैं. ऐसे में उद्धव ठाकरे के साथ 17 विधायक ही बच रहे हैं.

शिवसेना पर काबिज होने की जंग

शिवसेना में दो फाड़ होने की पूरी संभावना दिख रही है. ऐसी स्थिति में शिवसेना को भी कब्जाने की जंग उद्धव और शिंदे के बीच छिड़ सकती है. इस तरह शिंदे खेमा शिवसेना के साथ-साथ पार्टी के चुनाव चिन्ह ‘धनुष और बाण’ पर दावा कर सकते हैं. ऐसे में शिवसेना पर काबिज होने की जंग उद्धव और एकनाथ शिंदे के बीच छिड़ती है तो मामला चुनाव आयोग से कोर्ट तक पहुंच सकता है. आखिर क्या है पार्टी सिंबल का कानून और शिंदे और उद्धव ठाकरे के बीच तलवार खिंचती है तो फिर किसके हिस्से में आएगा?

चुनाव आयोग में देना होगा दस्तक

मानना होगा आयोग का फैसला

ऐसी स्थिति बनती है कि जब किसी एक ही पार्टी में दो गुट एक सिंबल के लिए दावा करते हैं तो ऐसे हालात में चुनाव आयोग दोनों खेमों को बुलाता है. दोनों पक्ष अपनी दलीलें रखते हैं. इसके बाद आयोग की तरफ से फैसला लिया जाता है. लेकिन याद रहे कि चुनाव आयोग का फैसला हर हाल में पार्टी के गुटों को मानना होगा. ऐसे में चुनाव आयोग मुख्य रूप से पार्टी के संगठन और उसकी विधायिका विंग दोनों के अंदर हर गुट के समर्थन का आकलन करता है. आयोग ये राजनीतिक दल के भीतर शीर्ष समितियों और निर्णय लेने वाले निकायों की पहचान करता है.

एलजेपी में भी वर्चस्व की जंग छिड़ी थी

इस तरह से चुनाव आयोग एक गुट का निर्धारण करने में असमर्थ रहता है तो फिर वो पार्टी के सिंबल को फ्रीज कर सकता है. इसके बाद दोनों गुटों को दोबारा नए नामों और सिंबल के साथ रजिस्ट्रेशन करने के लिए कह सकता है. चुनाव नजदीक होने की स्थिति में गुटों को एक अस्थायी चुनाव चिह्न चुनने के लिए कह सकता है. चिराग पासवान और पशुपति पारस के मामले में यही फैसला हुआ है. ऐसे में कोई गुट चुनाव आयोग के फैसले से सहमत नहीं होते हैं तो कोर्ट तक का दरवाजा भी खटखटा सकता है.

एलजेपी का मामला अभी भी कोर्ट में है तो सपा में अखिलेश यादव और शिवपाल यादव के बीच पार्टी में वर्चस्व की जंग छिड़ी थी तो सुप्रीम कोर्ट ने अखिलेश ने पार्टी और चुनाव चिन्ह हासिल किए थे. ऐसे में देखना है कि शिवसेना पर काबिज होने की लड़ाई किस दहलीज तक पहुंचती है. ऐसे में एकनाथ शिंदे का पड़ला विधायकों की संख्या में मामले में भारी है, लेकिन सांसदों की संख्या अभी भी उद्धव ठाकरे के साथ है. इसके अलावा संगठन के नेताओं को लेकर उद्धव और शिंदे को अपनी-अपनी ताकत दिखानी होगी. इसमें जो भारी पड़ेगा, उसी का कब्जा होगा?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *