अनुराग भारद्वाज
उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के संगम पर ब्रिटिश भारत में राष्ट्रवाद उभार ले रहा था. यह वह दौर था जब हर चीज़ हिंदू और मुस्लिम के चश्मे से देखी जाने लगी थी. ऐसे में, हिंदी और उर्दू के बीच देश की सरकारी भाषा बनने की लड़ाई एक अहम घटना है. सरकारी भाषा से मतलब है, काम-काज और न्यायालय की भाषा. इस लड़ाई का सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि प्रांतों की कई भाषाएं और लिपियां इसकी भेंट चढ़ गयीं.
क्या दोनों ज़ुबानें अलग-अलग हैं?
कमाल की बात है कि कई तो इन्हें एक ही ज़ुबान मानते थे. प्रख्यात साहित्यकार चंद्रधर शर्मा गुलेरी का बयान है कि हिंदी उर्दू में से ही निकल कर आई है. उनका कहना था, ‘खड़ी बोली, पक्की बोली, रेख्ता या वर्तमान हिंदी के आरम्भ काल में गद्य और पद्य देखकर यही जान पड़ता है कि उर्दू रचना में फ़ारसी-अरबी तत्सम या तद्भवों को निकालकार संस्कृत या हिंदी तत्सम या तद्भव रखने से ‘हिंदी’ बना ली गयी है.’
1914 में उर्दू के जानकार अब्दुल हक़ ने कहा, ‘कोई शक़ नहीं है, उर्दू हिंदी में से ही निकली है.’ वरिष्ठ पत्रकार और लेखक खुशवंत सिंह का मानना था कि उर्दू ‘डेरे की ज़ुबान’ है. डेरे जहां मुग़लों के सैनिक इकट्ठा होते थे. यानी उर्दू और हिंदी का विकास हिंदुस्तान की भाषाओं से हुआ. यही मिली-जुली ज़ुबान ‘हिंदवी’ या ‘हिंदुस्तानी’ कहलाई.
अमीर ख़ुसरो हिंदी या हिंदवी के पहले कवि कहाए गए हैं. ख़ुसरो ने जो कुछ भी ग़ैर पारसी में लिखा, उसे उन्होंने हिंदी की श्रेणी में रखा. राहुल संकृत्यायन ने कभी कहा था, ‘हिंदी उन अभी ज़ुबानों को अपने अंदर समेटे हुए है जो ‘सूबा हिंदुस्तान’ में जन्मीं.
तो फिर किसने और क्यों इन्हें अलग किया?
मुग़ल काल में फ़ारसी राजकाज की भाषा थी. मुग़लों के बाद यह प्रचलन में तो रही, पर इसमें उर्दू का समावेश ज़्यादा हो गया. उस दौर के साहित्य पर अगर नज़र डाली जाए, तो बात साफ़ हो जाती है. मीर तकी मीर, सौदा, नज़ीर अकबराबादी फ़ारसी के बजाय उर्दू में लिखने लग गए थे.
अंग्रेज़ राज स्थापित होने के बाद यानी 1857 के बाद, उर्दू को हटाने की मुहिम चली. उस दौर में उर्दू के ज़्यादातर जानकार मुसलमान या कायस्थ थे. चुनांचे, सरकारी नौकरियों में इनका दख़ल औरों के बनिस्बत ज़्यादा था. हिंदुओं ख़ासकर ब्राह्मणों, को यह बात नागवार थी. अंग्रेजों को भी महसूस हुआ कि सरकार उसी भाषा में बात करे, जो आमजन की ज़ुबान है.
इसके मद्देनज़र अंग्रेज़ सरकार ने फ़ोर्ट विलियम कॉलेज को उर्दू और हिंदी को अलग करने का पहला ज़िम्मा दिया. इससे दोनों के जानकार अपनी-अपनी राय लेकर भिड़ पड़े. टकराव शुरू हो गया. हिंदी माध्यम में पढ़ाने वाले स्कूलों की संख्या उर्दू के मदरसों से ज़्यादा थी. सरकार ने हिंदी के जानकारों के ज़ख्म पर नमक लगाते हुए एक आदेश पारित किया कि जो अभ्यर्थी उर्दू का जानकार होगा, उसे आम सरकारी नौकर की अपेक्षा 10 रुपये ज़्यादा मिलेंगे.
इस आदेश का विरोध होने पर 1882 में सरकार ने हंटर आयोग बिठा दिया. ये वही विलियम विल्सन हंटर थे जिनकी क़िताब ‘इंडियन मुसलमान्स’ विभाजन के प्रमुख सूत्रधारों में से एक थी. आयोग का का मकसद था भारत में शिक्षा का प्रसार देखना. नागरी और हिंदी के खेमे वालों को उम्मीद नज़र आने लगी. भारतेंदु हरिश्चंद्र, राजा शिव प्रसाद, सर सैयद अहमद खान और मोहसिन-उल-मुल्क जैसे कई विद्वान अपने-अपने मत लेकर आयोग के सामने पेश हुए.
सर सैयद अहमद खान ने कहा कि सरकारी तंत्र में उर्दू के इस्तेमाल बंद हो जाने पर मुसलमान सरकारी नौकरियों में नहीं रह पाएंगे और पहले से ज़्यादा पिछड़ जाएंगे. हिंदी को उन्होंने असभ्यों की भाषा और उर्दू को सभ्यों की ज़ुबान कहा. उन्होंने यह तक कह दिया था कि फ़ारसी लिपि में लिखी गयी उर्दू मुसलमानों की निशानी है. मिर्ज़ा ग़ालिब भी मानते थे कि ग़दर के बाद मुसलमानों को सरकारी नौकरियों से अलग किया गया है.
उधर, हिंदी की पैरवी करने वालों ने 76 प्रस्ताव दिए. हिंदी के पैरोकारों ने उर्दू को वेश्याओं की भाषा तक कह डाला. महामना मदन मोहन मालवीय ने कहा कि उस भाषा का क्या फ़ायदा जिसे आम हिंदुस्तानी समझ ही न पाएं. ज़ाहिर है उनका इशारा उर्दू की तरफ था. भारतेंदु ने कहा कि ये नाचने-गाने वालों की भाषा है और उर्दू की पूजा करने वालों का छुपा हुआ मकसद है कि रईस और रसूख वाले हिंदू ऐसे लोगों के संपर्क में आकर अपना चरित्र खो दें. वहीं, सैयद अहमद खान ने कहा हिंदी/नागरी को राजकाज की भाषा बनाने का मकसद शिक्षा का प्रसार नहीं, बल्कि राजनैतिक एजेंडा है. हंटर ने इस मुद्दे को लटका दिया.
हंटर के बाद इस आयोग को सर एंथनी मैकडोवल ने संभाला. वे हिंदी के पक्षधर थे. इसी बीच सर सैयद अहमद खान के निधन की वजह से उर्दू का पक्ष रखने वाले कमज़ोर पड़ गए. दूसरी तरफ़, महामना एक काबिल वकील थे. उन्होंने मैकडोवल के समक्ष दलील दी कि अगर हिंदी या नागरी राजकाज की भाषा नहीं बनाई जा सकती तो इसको विद्यालयों के पाठ्यक्रमों में से हटा दिया जाए. उन्होंने कहा कि नागरी के इस्तेमाल से राजकाज के कार्यों में पारदर्शिता आएगी जो सरकार के फ़ायदे की बात है.
मालवीय या अन्य हिंदी समर्थकों की दलीलों और मैकडोवल के हिंदुओं के प्रति नर्म रवैये का असर ये हुआ कि अप्रैल 1900 को उन्होंने एक आदेश जारी कर हिंदी के इस्तेमाल की इजाज़त दे दी.
कैथी लिपि क्या थी?
हिंदी को प्रमुखता दिए जाने से कई लिपियों और भाषाओं को हाशिये पर कर दिया गया. इसमें से एक थी कैथी या कायस्थी लिपि. इसका इस्तेमाल अवध, बिहार और बंगाल में होता था. यह कायस्थों की भाषा थी और कोर्ट या दफ़्तरों में काफी इस्तेमाल होती थी. कैथी लिपि में देवानगरी को घुमाव (कर्सिव) के साथ लिखा जाता था. अगर ध्यान से देखें तो यह हिंदी की वर्णमाला है पर इसे लिखे जाने का अंदाज़ अलग है.
आलोक राय अपनी क़िताब ‘हिंदी नेशनलिज्म’ में लिखते हैं कि नागरी के पक्ष में दलील दी गयी थी कि वह ज़्यादा इस्तेमाल में आती है. हक़ीक़त अलग थी. हिंदी और उर्दू से ज़्यादा कैथी प्रयोग में लाई जाती थी. पारदर्शिता और शिक्षा के लिहाज़ से कैथी लिपि ज़्यादा सटीक थी.
आलोक राय लिखते हैं कि कई अंग्रेज़ कैथी के समर्थक थे. जेसी नेसफ़ील्ड ने अवध में इस लिपि को कामकाज की भाषा बनाये रखा. वहीं, कैंपबेल ने बिहार में फ़ारसी लिपि के बजाय नागरी या कैथी को इस्तेमाल करने का आदेश दिया. बंगाल प्रांत कमेटी ने 1883 में शिक्षा के प्रसार के लिए कैथी के अधिक प्रचलित होने की वजह से उसे शिक्षा में माध्यम बनाने का सुझाव दिया था.
शारदादेवी वेदालंकार की क़िताब, ‘हिंदी गद्य का 19वीं शताब्दी में विकास’ के हवाले से आलोक राय लिखते हैं कि उत्तर-पश्चिम प्रांत के 25,151 विद्यालयों में देवनागरी प्रचलन में थी. वहीं 77,368 स्कूलों में कैथी लिपि और 24,302 में महाजनी लिपि इस्तेमाल में आती थी. इन तथ्यों के बावजूद कैथी को नकार दिया गया.
कैथी क्यों नकारी गई?
हिंदी के झंडाबरदारों को कैथी संस्कृत से दूर और ‘हिंदुस्तानी’ भाषा के नज़दीक लगी. यानी, उसमें हिंदी और उर्दू का समावेश था और हिंदू और मुसलमानों दोनों को ही आती थी. इसे अगर सरकारी कामकाज की भाषा बना दिया जाता तो, मुसलमान सरकारी नौकरियों में बने रहते. जानकारों के मुताबिक सबसे बड़ी बात यह थी कि कैथी को मान्यता दिए जाने पर उर्दू का इस्तेमाल ख़त्म नहीं होता. देवनागरी को इसलिए इसे आगे बढ़ाया गया कि यह हिंदुओं के शास्त्रों की लिपि थी.
बहुत से लोग मानते हैं कि कुछ जातिगत कारणों के चलते भी कैथी नकारी गई. यह कायस्थों की लिपि थी. ब्राह्मणों को लगता था कि कायस्थ सरकारी नौकरियों में हावी हैं. उनका आधिपत्य ख़त्म करने के लिहाज़ से भी नागरी को कैथी के ऊपर तरजीह दी गयी. वैसे कैथी ही नहीं, महाजनी जैसी और लिपियां भी इसी जंग में शहीद हो गईं.
नुकसान क्या हुआ?
हिंदी और उर्दू के पैरोकारों की लड़ाइयों का नतीजा यह हुआ कि उर्दू मुसलमानों और हिंदी हिंदुओं की जुबान बन गई. इसके कई सारे नुकसानों में से दो अहम हैं. पहला, मेल-मिलाप ख़त्म होने से दोनों भाषाओं का विकास क्रम धीमा पड़ गया क्योंकि एक-दूसरे के शब्दों के इस्तेमाल का परहेज़ होने लगा. दूसरा, विभाजन की पहली महीन रेखा इसी लड़ाई की वजह से खिंच गयी जो बाद में मोटी होते-होते सीमा के कंटीले तारों में तब्दील हो गयी.
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