राजेश श्रीवास्तव
इन दिनों देश में किसान आंदोलन चल रहा है। अन्नदाता जमा देने वाली ठंड पर सिंधु बार्डर पर जमा है। पूरी सरकार की कोशिश यह है कि किसी तरह यह साबित कर दिया जाए कि जो आंदोलन कर रहे हैं वह किसान नहीं हैं। दर्जन भर किसानों की मौत हो चुकी है। करीब दो दर्जन से ज्यादा मृत्यु तुल्य कष्ट की हालत में हैं। लेकिन कुल मिलाकर कहा यह जा रहा कि यह तय है कि कानून वापस नहीं लिया जायेगा। यह संसद ने तय किया है तो कानून वापस नहीं होंगे। तो यह चर्चा भी हो रही है कि क्या पूर्व की किसी सरकार ने जनांदोलन के बाद किसी कानून को वापस लिया है कि नहीं। भाजपा ने इसके बदले अपनी पूरी टीम को लगा दिया कि देश भर में वर्चुअल किसान सम्मेलन किये जाएं। यूपी सरकार ने सारे मंत्रियों की ड्यूटी लगा दी है कि सब कानून के पक्ष में किसानों के बीच में माहौल बनायें। तब याद आता है कि पूर्व में भी इसी देश में एक प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं जिन्होंने ऐसी परिस्थितियों में क्या किया था, जवाहर लाल, और लाल बहादुर शास्त्री ने क्या किया था। ऐसा भी नहीं कि इंदिरा गांधी लचर प्रधानमंत्री थीं। उनके कट्टर इरादों को पूरी दुनिया जानती और मानती है। भले ही उन्होंने सर्जिकल स्ट्राईक नहीं की हो लेकिन इस्लामाबाद और लाहौर तक भारत की सेना उनके ही समय में घुस गयी थी।
आजादी के बाद दो महाआंदोलन हुए जिनके सामने तत्कालीन केंद्रीय सरकारों को झुकना पड़ा। इनमें से पहला आंदोलन 1956-57 में हुआ था और दूसरा 1965 में। पहले आंदोलन का संबंध महाराष्ट्र राज्य के निर्माण से था। आंध्र में भाषा आधारित राज्य के निर्माण की मांग को लेकर एक सामाजिक कार्यकताã ने आमरण अनशन प्रारंभ किया था। उनका नाम पोटटू रामुलू था। अनशन के दौरान उनकी मृत्यु हो गई जिससे बहुत हंगामा खड़ा हो गया। जिसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन किया। इस आयोग को यह जिम्मेदारी दी गई कि वह ऐसा फार्मूला बनाए जिसके आधार पर राज्यों का पुनर्गठन किया जाए। आयोग ने सिफारिश की कि राज्यों का निर्माण का आधार भाषा हो। तदनुसार अनेक राज्यों का गठन किया गया। परंतु मराठी और गुजराती भाषाओं के आधार पर राज्य नहीं बनाए गए। इससे भारी असंतोष व्याप्त हो गया और बड़े पैमाने पर हिसा हुई। महाराष्ट्र की मांग को लेकर लाखों लोगों ने दिल्ली के लिए पैदल मार्च किया था। मराठी भाषियों की जोरदार मांग के आगे उन्हें झुकना पड़ा। और इसे सरकार ने वापस लिया।
दूसरा महान आंदोलन तमिलनाडु में हुआ। संविधान में इस बात का प्रावधान किया गया था कि 1965 के बाद अंग्रेजी लिक लैंग्वेज नहीं रहेगी। इसका अर्थ यह था कि 1965 के बाद प्रशासकीय कार्य अंग्रेजी में ना होकर हिदी में होने लगेगा। इस बात को लेकर तमिलनाडु में भारी आक्रोश था। पूरे तमिलनाडु में आंदोलन प्रारंभ हो गया। बड़े नगरों में हिसक घटनाएं हुईं। हवाई जहाजों, बसों और ट्रेनों का आवागमन ठप्प कर दिया गया। उन दिनों लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री थे। शास्त्रीजी के आदेश पर इंदिरा गांधी तमिलनाडु गई। उस समय स्थिति बहुत गंभीर थी। पूरा तमिलनाडु धूं-धूंकर जल रहा था। आक्रोशित लोग मद्रास हवाई अड्डे को घेरे हुए थे। इंदिरा गांधी ने मद्रास पहुंचने के पहले यह संदेश भेजा कि किसी पर भी बिना उसकी मर्जी के कोई भाषा लादी नहीं जाएगी। ज्यो ंही उनका यह संदेश पहुंचा गुस्सा ठंडा पड़ गया। इस तरह दोनों बार तत्कालीन सरकारों ने जन भावनाओं के सामने घुटने टेके। वर्तमान में भी किसानों का एक बड़ा हिस्सा उतना ही बड़ा आंदोलन कर रहा है। आंदोलन को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने गंभीर चिता प्रकट की है। कोर्ट ने एक संयुक्त समिति बनाने का संकेत दिया है। अभी तक प्रधानमंत्री बार-बार कह रहे हैं कि मैं किसी भी हालत में तीनों कानून वापस नहीं लूंगा। वैसे सरकार वार्ता तो कर रही है परंतु गंभीरता से नहीं। अगर अब तक के मोदी सरकार के कार्यकाल की समीक्षा करें और इस आंदोलन के संबंध में मंत्रियों के बयान सुनें तो यह साफ होता है कि किसी भी हालत में कृषि कानून वापस नहीं होंगे। एनआरसी पर भी यही हुआ था कि आंदोलन के बाद पूरे देश में भाजपा ने इसके समर्थन में जनसभाओं को शुरू किया था। जगह-जगह सभाएं होने लगी थीं और इसके विरोध के जवाब में समर्थकों की बड़ी फौज खड़ी कर दी गयी थी। वह तो भला हो कोरोना का कि आंदोलन खत्म हो गया और भाजपा को मुक्ति मिल गयी। हर राजनीतिक दल का अपनी स्टाईल होता है। भाजपा आपदा को अवसर में बदलना जानती है। उसे पता है कि आंदोलन से कैसे निपटना है। रणनीतिकारों का मानना है कि जनवरी में जब पारा शून्य के आसपास पहुंचेगा तो किसान अपने आप घर वापस चले जाएंगे। अगर आप समझें तो कल कृषि मंत्री ने इशारा भी किया था कि साल के अंत तक किसान हमारी बातों को समझ जाएंगे और कानून को समझ जाएंगे। अब किसानों को समझ लेना चाहिए कि उन्हें आंदोलन खत्म करना है या अपनी जान गंवानी है। लेकिन सरकार कानून वापस नहीं लेगी, यह साफ है। 12 तो मौत को गले लगा ही चुके हैं। सरकार तो जो मर गये उनको किसान ही नहीं मानती।