हिमांशु शेखर
2014 में केंद्र की सत्ता से बेदखल होने के बाद पांच राज्यों के हालिया विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए सबसे सुखद नतीजे लेकर आए हैं. इन नतीजों की वजह से वह 2019 के लोकसभा चुनावों के तकरीबन छह महीने पहले एक ऐसी पार्टी के तौर पर दिखने लगी है जो केंद्र की सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पूरी टक्कर दे सकती है.
पूर्वोत्तर के मिजोरम में कांग्रेस सत्ता से बेदखल हो गई. लेकिन जिस छत्तीसगढ़ में उसकी स्थिति सबसे कमजोर मानी जा रही थी, वहां उसे जबर्दस्त कामयाबी मिली. राजस्थान में कांग्रेस को जितनी बड़ी जीत की उम्मीद थी, उतनी बड़ी तो नहीं लेकिन सरकार बनाने भर सीटें मिल गईं. मध्य प्रदेश के कड़े मुकाबले में भी अंतिम बाजी कांग्रेस के हाथ ही रही. इन चुनावों में कांग्रेस ने जहां मिजोरम में अपनी सरकार गंवाई वहीं तीन राज्यों में उसने भाजपा को सत्ता से बेदखल करके अपनी सरकार बनाने में कामयाबी हासिल की. जानकारों के मुताबिक इन चुनावी नतीजों से कांग्रेस पांच मोटे सबक ले सकती है.
जनता बदलाव के पक्ष में
हालिया चुनावी नतीजों ने यह साफ कर दिया है कि अगर जनता के सामने मजबूत विकल्प हो तो वह बदलाव के पक्ष में है. जिन राज्यों में भी कांग्रेस पार्टी सत्ताधारी पक्ष का मुकाबला मजबूती से करती दिखी और जहां एक मजबूत विकल्प पेश किया गया, वहां उसका प्रदर्शन ठीक रहा. छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश इसका उदाहरण हैं. लेकिन जहां कांग्रेस विकल्प मुहैया कराने की स्थिति में नहीं दिखी, वहां जनता ने उसे खारिज कर दिया. तेलंगाना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. 2014 के चुनावों में अकेले लड़ने के बावजूद जितनी सीटें कांग्रेस को मिली थीं, उतनी सीटें उसे इस बार टीडीपी के साथ गठबंधन में लड़ने के बावजूद नहीं मिलीं. जनता के बदलाव के पक्ष में होने से यह स्पष्ट है कि अगर कांग्रेस को आने वाले लोकसभा चुनावों में और कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी और अमित शाह की भाजपा से मुकाबला करना है तो उसे खुद को जनता के सामने एक मजबूत विकल्प के तौर पर पेश करना होगा.
राहुल गांधी के नेतृत्व में बढ़ा विश्वास
इन चुनावी नतीजों का कांग्रेस के लिए एक सबक यह भी है कि राहुल गांधी के नेतृत्व में धीरे-धीरे लोगों का विश्वास बढ़ रहा है. पिछले कुछ सालों में राहुल गांधी की अपनी गलतियों और भाजपा की प्रचार मशीनरी के आक्रामक हमलों की वजह से उनकी छवि काफी खराब हो गई थी. एक ऐसा माहौल बना था जिसमें लोग राहुल गांधी को नेतृत्व की भूमिका में स्वीकार करने को तैयार नहीं थे. कांग्रेस पार्टी के अंदर भी ऐसा माहौल बनने लगा था. लेकिन पिछले साल हुए गुजरात विधानसभा चुनाव, इस साल हुए कर्नाटक विधानसभा चुनाव और अब पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में राहुल गांधी ने जिस तरह का नेतृत्व कांग्रेस पार्टी को दिया है, उससे उनके नेतृत्व में न सिर्फ पार्टी नेताओं का विश्वास बढ़ेगा बल्कि आम लोग भी उन पर अधिक भरोसा कर पाने की स्थिति में रहेंगे. डीएमके की ओर से 2019 में प्रधानमंत्री पद के लिए राहुल गांधी का नाम आगे किया जाना यह दिखाता है कि राहुल गांधी में सहयोगी दलों का भी विश्वास बढ़ रहा है. ऐसे में कांग्रेस को राहुल की सफल नेतृत्वकर्ता की छवि को आम लोगों के बीच ठीक से प्रचारित करने की प्रभावी रणनीति बनानी होगी.
गठबंधन कौशल में सुधार
छत्तीसगढ़ में भले ही कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत हासिल हो गया हो लेकिन राजस्थान और मध्य प्रदेश में जिस तरह की स्थिति बनी, उसके लिए गठबंधन करने में कांग्रेस के नाकाम रहने को एक बड़ी वजह माना जा रहा है. राजनीतिक जानकार यह कह रहे हैं कि अगर कांग्रेस ने चतुराई के साथ गठबंधन किया होता तो राजस्थान में उसे और बड़ी जीत हासिल हुई होती. मध्य प्रदेश के बारे में भी यह कहा जा रहा है कि अगर कांग्रेस ने ठीक से गठबंधन किया होता तो यहां इतना कड़ा मुकाबला नहीं होता बल्कि कांग्रेस गठबंधन के सहारे आराम से जीत हासिल करती.
बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए समर्थन देते वक्त भी इस बात का उल्लेख किया कि कांग्रेस ने गठबंधन करने के उनके प्रस्ताव को चुनावों के पहले ठुकरा दिया था. इस वजह से कांग्रेस को समर्थन की घोषणा करते वक्त भी मायावती कांग्रेस के प्रति हमलावर ही रहीं. जानकारों के मुताबिक इस घटना से कांग्रेस को यह सबक लेना चाहिए कि अगले लोकसभा चुनावों को देखते हुए अभी से ही गठबंधन को अंतिम रूप देने का काम होना चाहिए ताकि पार्टी भाजपा और नरेंद्र मोदी का मुकाबला ठीक से कर सके.
आंतरिक खींचतान को दूर करना जरूरी
इन चुनावों में भले ही कांग्रेस को कामयाबी मिली हो लेकिन, पार्टी को राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में आंतरिक खींचतान का भी सामना करना पड़ा है. राजस्थान में अशोक गहलोत और प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट के बीच खींचतान चल रही थी. वहीं मध्य प्रदेश में प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच आंतरिक मतभेद पूरे चुनाव में बरकरार रहा. छत्तीसगढ़ कांग्रेस में भी आपसी गुटबाजी थी. जानकारों के मुताबिक ऐसे में अगले लोकसभा चुनावों को देखते हुए कांग्रेस आलाकमान को प्रदेश इकाइयों की गुटबाजी खत्म करने पर खास ध्यान देना चाहिए, क्योंकि इस बार भी यह कहा जा रहा है कि अगर कांग्रेस के अंदर आपसी गुटबाजी नहीं होती तो राजस्थान और मध्य प्रदेश में पार्टी को और बड़ी जीत हासिल हुई होती.
कांग्रेस के अंदर की खेमेबंदी तीनों राज्यों में मुख्यमंत्री के चयन के वक्त भी दिखी. मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री बनने के लिए कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया में आखिरी दौर तक खींचतान चली. वहीं राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट के समर्थकों के बीच हिंसा की आशंका तक पैदा हो गई और अंत में समझौता गहलोत को मुख्यमंत्री और सचिन पायलट को उपमुख्यमंत्री बनाकर हुआ. छत्तीसगढ़ में तो मुख्यमंत्री पद के चार दावेदार थे. ऐसे में अगर इन राज्यों में कांग्रेस ठीक से सरकार चलाना चाहती है और 2019 के लोकसभा चुनावों में अपनी स्थिति मजबूत करना चाहती है तो उसे पार्टी के अंदर की खींचतान को दूर करना होगा.
सांगठनिक ढांचे पर ध्यान
गुजरात चुनावों के बाद भी यह बात सामने आई थी कि प्रदेशों में कांग्रेस का सांगठनिक ढांचा बिल्कुल चरमरा गया है. इस बार के नतीजों के बाद भी यह बात सामने आ रही है. मध्य प्रदेश में कांग्रेस को सांगठनिक ढांचे के अभाव की वजह से सबसे अधिक परेशानियों का सामना करना पड़ा. छत्तीसगढ़ में पार्टी के सामने यही संकट था. राजस्थान में अपेक्षाकृत ठीक स्थिति थी.
कांग्रेस के सांगठनिक ढांचे पर संकट उन राज्यों में अधिक दिखता है जहां उसकी सरकार नहीं रहती है. कर्नाटक में यह संकट नहीं था. लेकिन अभी की स्थिति यह है कि अधिकांश राज्यों में कांग्रेस की सरकार नहीं है. ऐसे में अगर 2019 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को नरेंद्र मोदी और अमित शाह की भाजपा का मुकाबला मजबूती से करना है तो उसे राज्यों में अपने सांगठनिक ढांचे को मजबूत करने पर काम करना चाहिए. इसमें सेवा दल जैसे पुराने सहयोगी संगठनों की प्रमुख भूमिका हो सकती है.
सभार : सत्याग्रह