संघ की भागवत कथाः क्या यह RSS 2.0 की शुरुआत है?

नई दिल्ली। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के बाद के जो प्रमुख पड़ाव हैं, उनमें संघ के संस्थापक केशवराव बलिराम हेडगेवार के बाद दूसरा अहम नाम है गुरु गोलवरकर का. हेडगेवार के संघ को आक्रामक और तेज़ी से प्रसारित करने का काम गोलवरकर ने किया. इसके बाद राममंदिर आंदोलन के दौरान दूसरा बड़ा विस्तार था मधुकर दत्तात्रेय यानी बालासाहेब देवरस की सोशल इंजीनियरिंग. इस दौरान संघ अगड़ी जातियों से निकलकर पिछड़ों और दलितों, आदिवासियों को एक अभियान के तहत खुद से जोड़ने की रणनीति के साथ आगे बढ़ा.

इसका लाभ भी संघ को मिला. सोशल इंजीनियरिंग के इसी मंत्र से आज की भारतीय जनता पार्टी की राजनीति चलती नज़र आती है. अगड़ों के मूल और पिछड़ों, दलितों के ब्याज़ पर भाजपा फलफूल रही है. ऐसे कई सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यक्रम देशभर में चलाए जा रहे हैं जिनसे दलितों और आदिवासियों को यह बताया जा सके कि वो हिंदू हैं और इस तरह वे हिंदुत्व के विशद विस्तार का हिस्सा बन सकें.

21वीं सदी में अब संघ के सामने सबसे बड़ी चुनौती आधुनिकता और तकनीक के बढ़ते प्रसार में अपने को सुग्राह्य बनाना है. संघ अपनी स्थापना की शताब्दी के अंतिम दशक में चल रहा है. केंद्र में पहली बार भाजपा की बहुमत वाली सरकार है. राज्यों का रंग भी केसरिया है. अपनी शताब्दी की ओर बढ़ते संघ के लिए यह एक सबसे उपयुक्त स्थिति है.

लेकिन इस उपयुक्तता के लिए निरंतरता नितांत आवश्यक है. संघ प्रमुख मोहन भागवत के दिल्ली में तीन दिनों के उद्बोधनों के पीछे इसी निरंतरता का प्रयास, संघ का विस्तार, संघ का संरक्षण और संचार निहित है. इसे दिल्ली की भाषा में RSS 2.0 की शुरुआत कहा जा सकता है.

संघ प्रमुख के भाषण के तीन निहितार्थ

संघ प्रमुख ने अपने उद्बोधन में बंधुत्व की बात कही. मुसलमानों के बिना हिंदुत्व क्या, जो सबको लेकर चले वो हिंदू है, नैतिकता के बिना विकास बेमानी है, पश्चिम का अंधानुकरण न करके अपने मूल्यों को सामने रखें, आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था का हम आदर करते हैं, समलैंगिकों को भी समाज का हिस्सा मानें, लिंचिंग वाले गाय के रक्षक नहीं, संविधान सबने मिलकर बनाया है और उसे हम सब मानते हैं और मानना भी चाहिए… जैसी बातें उनके संबोधन का केंद्रीय तत्व रहीं.

अधिकतर लोगों को आश्चर्य इस बात से है कि ये बातें उस संगठन के प्रमुख की भाषा बन गई हैं जिसके आनुषांगिक संगठनों की ओर से कभी किसी को पाकिस्तान भेजने की बात कही जाती है तो कभी धार्मिक चिन्हों और मान्यताओं के नाम पर अन्य जातियों और समुदायों के लोगों की हत्याएं तक कर दी जाती हैं.

मोहन भागवत खुद भी जिस तरह की बातें पहले कहते रहे हैं, उनका ताज़ा भाषण क्रम उससे इतर दिखाई देता है. इसके पीछे मूल रूप से तीन कारण हैं.

सोशल इंजीनियरिंग के आगे

पहला तो यह कि मोहन भागवत के ये तीन भाषण उनके लिए नहीं हैं जो पहले से संघ को जानते या समझते हैं या उसका अनुसरण करते हैं. समाज का एक हिस्सा कांग्रेस के बारे में यह सोचता है कि यह तो मुस्लिम तुष्टिकरण वाली पार्टी है. ऐसे लोगों को वापस रिझाने के लिए कांग्रेस सॉफ्ट हिंदुत्व का सहारा ले रही है. ठीक उसी प्रकार एक आबादी यह मानती है कि भाजपा और संघ सांप्रदायिक हैं. भागवत का भाषण उन्हीं लोगों के हृदय परिवर्तन की ओर संघ का प्रयास है.

संघ दरअसल अब जातियों के गणित से आगे जाकर सभी वर्गों में अपनी एक आधुनिक, सहज और कट्टरवाद से मुक्त छवि गढ़ने की कोशिश कर रहा है. यह 21वीं सदी के भारत में, और तेज़ी से शहरी होते भारत में संघ के प्रसार के लिए अहम कदम है.

जो संघ को करीब से नहीं जानते, संघ उनके सामने अब तस्वीर लेकर खड़ा है. इस तस्वीर में विविध रंग दिखाए जा रहे हैं, उगता हुआ सूरज और हरियाली दिखाए जा रहे हैं. सब वर्गों के लोग दिखाए जा रहे हैं. संविधान और तिरंगा दिखाया जा रहा है.

हालांकि इसका यह मतलब कतई नहीं है कि जो पहले से संघ को जानते और संघ की भाषा बोलते या समझते आए लोग हैं वो संघ, समाज और देश के प्रति अपनी धारणा को इस संबोधन के बाद बदल देंगे. देश में संघ से जुड़े लोगों की राजनीति उसी पुरानी धारा पर चलती रहेगी. यह नया रूप, नया आकर्षण एक नए भारतीय के लिए है जो संघ को नहीं जानता. जैसे खेल के सहारे बच्चे शाखा तक पहुंचते हैं, भागवत के भाषण के सहारे लोग संघ तक पहुंचेंगे.

मुख्यधारा में आने की आतुरता

दूसरा निहितार्थ है खुद के लिए मुख्यधारा में गुंजाइशों की खोज. अपने कथानक को बदलकर संघ ऐसी भाषा बोलता दिखना चाह रहा है जो एक वर्ग, जाति या संप्रदाय की भाषा न लगकर देश की भाषा लगे. संघ और भाजपा को अब लगता है कि वो भारतीय राजनीति में भली प्रकार से स्थापित हो गए हैं. अबतक एक पार्टी के वर्चस्व और उसके सामने उगते आए गठबंधनों की सत्ता वाली परिस्थिति खत्म हो गई है और अब सत्ता के लिए संघर्ष दो ध्रुवीय हो गया है. भाजपा भारत की राजनीतिक महाशक्ति बन गई है. आने वाले दशकों में कांग्रेस या बाकी दलों का मुकाबला भाजपा से रहेगा ही.

लेकिन इन सब के दौरान संघ को एक राष्ट्रीय चरित्र भी अपनाना है. ऐसा इसलिए ज़रूरी है ताकि वो केवल हिंदुओं का संगठन बना न रह जाए. या कम से कम उसके बारे में धारणा तो ऐसी न हो. संघ साहित्य, कला, इतिहास, अर्थनीति जैसे क्षेत्रों में खुद को स्थापित करने की व्याकुलता लिए हुए है. पिछले चार साल के प्रयासों में उसे बौद्धिक और कलाक्षेत्र में अभी वैसी सफलता नहीं मिली है, जैसी उसे अपेक्षा थी. संघ के इस नए परिचय के बाद अब वो गुंजाइश बनाने के दरवाजे संघ ने खोल लिए हैं.

इससे बाकी समुदायों और वर्गों के लोगों के बीच संघ से जुड़ने की या उसके साथ मंच साझा करने की सहजता बढ़ेगी. इसी सहजता से संघ का दखल और विस्तार तय होगा. संघ के लिए यह बहुत अहम है. क्योंकि संघ का लक्ष्य भाजपा के सत्तासीन होने के लक्ष्य से भी बड़ा है.

इसी उदार होते चेहरे की बदौलत संघ सत्ता में संख्याओं की कमी को पूरा करने के लिए और नए मित्र खोज पाने में भी सफल होगा. संघ के कई महत्वपूर्ण बिंदुओं पर उदार दिखते विचार उसकी राजनीतिक सुग्राह्यता के लिए भी सकारात्मक साबित होंगे.

प्रतिरक्षा का साधुगीत

एक हित और निहित है और वो है सत्ता परिवर्तन की स्थिति में संघ का बचाव. अगर 2019 में आम चुनाव का परिणाम भाजपा और संघ की अपेक्षा के अनुरूप नहीं आता है तो जाहिर है कि संघ के लिए यह चिंता का विषय होगा. सबसे बड़ी चिंता तो यह है कि संघ ने 2014 से अभी तक देशभर के संस्थानों में जिस तरह खुद को स्थापित करने का काम किया है, उसे पलटा जा सकता है. और दूसरा यह कि राहुल गांधी और विपक्ष संघ को लेकर जिस तरह की भाषा बोलते रहे हैं, उसकी तुलना कट्टरपंथी और अतिवादी संगठन के रूप में करते रहे हैं, उससे संघ के सीधे निशाने पर आने की भी गुंजाइश है.

ऐसे में आमजन के बीच में संघ के प्रति एक उदार धारणा संघ की प्रतिरक्षा भी करेगी. भागवत के ये तीन दिनों के संबोधन संघ के बचाव के शब्द बनेंगे. संघ की नीतियों को एक कट्टरपंथी संगठन की नीतियों के बजाय एक हारे हुए राजनीतिक पक्ष की नीतियों के तौर पर देखा जाएगा. संघ के प्रति कठोरता होने पर लोग संघ की उदारता के तर्क दे सकने की स्थिति में होंगे.

इस तरह संघ अपने इस नए अवतार के साथ जहां एक ओर अपने राजनीतिक और सामाजिक प्रसार की नई परिधियां देख रहा है, वहीं उसको मुख्यधारा में स्वीकार्यता, एक उदार संगठन का चेहरा और अपनी राजनीतिक जमीन को बचाने का एक विकल्प भी इसमें दिखाई दे रहा है. सत्ता में अबतक सबसे ज़्यादा लाभान्वित होता संघ खुद को राजनीति की लड़ाई से अलग खड़ा कर पा रहा है और आगे भी जा पा रहा है. यह एक बड़ी राजनीतिक सूझ के तहत रचा गया बिंब है. संघ को उम्मीद है कि यह चित्र पहले से अधिक मोहक साबित होगा.

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