डेढ़ दशक से अफगानिस्तान में लड़ रहा अमेरिका अब छह महीने में ही सुलह क्यों चाहता है?

अफगानिस्तान में 17 साल से एक-दूसरे से लड़ रहे तालिबान और अमेरिका ने इस मसले को शांति से सुलझाने पर गंभीरता से काम करना शुरू कर दिया है. बीते चार महीनों में दोनों के बीच तीन बार बैठक हुई है. इस महीने की शुरुआत में दोनों के बीच क़तर में तीन दिवसीय मैराथन बैठक हुई.

पीटीआई के मुताबिक इस बैठक में तालिबान ने अफगानिस्तान में अगले साल होने वाला राष्ट्रपति चुनाव स्थगित करने और तटस्थ नेतृत्व के अंतर्गत अंतरिम सरकार स्थापित करने की मांग की है. उसने ताजिक मूल के इस्लामिक विद्वान अब्दुल सत्तार का नाम अंतरिम सरकार के प्रमुख के रूप में सुझाया है. इस बैठक के बाद तालिबान से जुड़े एक अधिकारी ने बताया कि अमेरिका छह महीने में सुलह पर पहुंचना चाहता है, लेकिन तालिबान ने इसे बहुत छोटी अवधि बताया है.

इससे पहले तालिबान के प्रवक्ता ज़बीउल्लाह मुजाहिद ने कहा, ‘मैं अमेरिका के साथ चल रही शांति वार्ता के बारे में आधिकारिक तौर पर कुछ भी नहीं कह सकता, लेकिन अब इतना साफ़ है कि अमेरिका हर हाल में इस मुद्दे को हमारे साथ सीधे बातचीत करके ही सुलझाना चाहता है.’

अमेरिका और तालिबान के बीच शुरू हुई बातचीत चौंकाने वाली इसलिए है क्योंकि अमेरिका हमेशा से यही कहता आ रहा था कि तालिबान एक आतंकी संगठन है और वह किसी आतंकी संगठन से सीधी बातचीत नहीं करेगा. उसका कहना था कि तालिबान को जो भी बातचीत करनी है अफगानिस्तान की सरकार से करे. उधर, तालिबान का कहना था कि वह किसी कठपुतली सरकार के साथ नहीं बल्कि अमेरिका से ही सीधी बात करेगा.

इस सब के बीच एक बड़ा सवाल यह भी उठता है कि 17 साल से अफगानिस्तान में लड़ रहा अमेरिका अब मात्र छह महीने में सुलह क्यों चाहता है? आखिर, वह अब अचानक अपनी रणनीति क्यों बदल रहा है?

अमेरिकी मीडिया और वहां के जानकार इसके पीछे कई वजहें बताते हैं. इनके मुताबिक इसकी पहली वजह अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप हैं, जो अगानिस्तान में अमेरिकी सेना की तैनाती के पक्ष में नहीं हैं. ट्रंप ने 2016 में राष्ट्रपति चुनाव के दौरान अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना को वापस बुलाने का वादा भी किया था. तब उनका कहना था, ‘अफगानिस्तान में अमेरिकी फ़ौज के होने से 15 साल में कोई नतीजा नहीं निकल पाया है. सरकार को अमेरिकी करदाताओं का पैसा इस तरह बहाने की जरूरत नहीं है और अमेरिकी फौजों को तुरंत अफगानिस्तान से वापस बुलाया जाए.’

हालांकि राष्ट्रपति बनने के तुरंत बाद डोनाल्ड ट्रंप अपने इस वादे से पलटते दिखे. अगस्त, 2017 में बतौर राष्ट्रपति इस मसले पर पहली बार बात करते हुए उनका कहना था, ‘सैन्य अधिकारियों का मानना है कि अभी अफगानिस्तान में अमेरिकी मिशन चलने दिया जाए, वहां और ज्यादा ताकत से लड़ने पर नतीजा जल्द आ सकता है.’ इसके साथ ही अमेरिका ने अफगानिस्तान में 3,000 और सैनिक भेजने की घोषणा कर दी थी. लेकिन इस घोषणा के करीब दस महीने बाद जुलाई, 2018 में डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन ने अफगानिस्तान को लेकर अपनी रणनीति अचानक बदल दी और तालिबान से बातचीत शुरू कर दी. अमेरिकी मीडिया की मानें तो ट्रंप हर हाल में अफगानिस्तान में सुलह चाहते हैं इसीलिए जुलाई से अब तक दोनों पक्षों के बीच तीन बैठकें हो चुकी हैं.

अमेरिकी जानकारों की मानें तो ऐसा इसलिए है कि अफगानिस्तान में डोनाल्ड ट्रंप की रणनीति बुरी तरह असफल रही है. इनके अनुसार डोनाल्ड ट्रंप की आक्रामक नीति का अमेरिका को कोई फायदा नहीं हुआ, उलटे इसके बाद से तालिबान की ताकत में आश्चर्यजनक बढ़ोत्तरी जरूर हुई है. बताते हैं कि इस आतंकी संगठन ने पिछले करीब एक साल में अफगान-अमेरिकी फौजों को शिकस्त देते हुए अपना कब्जा तेजी से बढ़ाया है. जहां कई देश अफगानिस्तान के आधे से ज्यादा हिस्से पर तालिबान का कब्जा बताते हैं, वहीं पश्चिमी देशों की एजेंसियों ने भी माना है कि अब तालिबान का देश के 40 से 50 फीसदी हिस्से पर दावा मजबूत है.

अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की संख्या बढ़ाने का अमेरिकी रणनीति पर उलटा असर पड़ा है | फोटो : एएफपी
                                                                                            अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की संख्या बढ़ाने का अमेरिकी रणनीति पर उलटा असर पड़ा है | फोटो : एएफपी

डोनाल्ड ट्रंप की नीति के बाद से युद्ध में मरने वालों की संख्या में भी रिकॉर्ड बढ़ोत्तरी हुई है. संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक अफगानिस्तान में इस साल जनवरी से जून तक 1692 नागरिकों की युद्ध के दौरान मौत हुई है. संस्था के मुताबिक अफगानिस्तान में 2008 के बाद युद्ध में मरने वालों की यह सबसे ज्यादा संख्या है.

अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार बताते हैं कि पिछले एक साल में अफगानिस्तान में जिस तरह के परिणाम सामने आए हैं उन्हें देखते हुए डोनाल्ड ट्रंप और उनके अधिकारियों को अब यह समझ में आ गया है कि अफगानिस्तान का नतीजा बंदूक से नहीं निकलने वाला.

अमेरिकी थिंक टैंक ‘फाउंडेशन फॉर द डेमोक्रेसीज डिफेंस’ में अफगानिस्तान मामलों के विशेषज्ञ बिल रोगजीओ एक साक्षात्कार में कहते हैं, ‘अमेरिका को अब शायद समझ में आ गया है कि तालिबान से नहीं लड़ा जा सकता क्योंकि तालिबान अनिश्चित समय के लिए लड़ने की सोच चुका है.’ वे आगे कहते हैं, ‘17 साल के युद्ध के बाद अमेरिका थक चुका है. अब वह वहां से निकलना चाहता है. एक वही है जो चाहता है कि शांति के लिए वार्ता की जाए.’ रोगजीओ के मुताबिक तालिबान को देखकर अभी भी यह नहीं लगता कि वह वार्ता करने को उतावला है.

ट्रंप के रुख में अचानक आए बदलाव की एक वजह और भी बताई जा रही है. इस समय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखें तो अफगानिस्तान एक ऐसी जगह है जहां अमेरिका सबसे ज्यादा पैसा खर्च कर रहा है. बीते 17 साल में अमेरिका वहां 840 अरब डॉलर से ज्यादा की रकम खर्च कर चुका है. अमेरिकी मीडिया की मानें तो बतौर राष्ट्रपति अमेरिका का पैसा बचाने में लगे डोनाल्ड ट्रंप अब अफगानिस्तान में एक भी डॉलर खर्च करने के मूड में नहीं हैं.

रूस के दखल ने अमेरिका की चिंता बढ़ाई

अमेरिका की अफगान नीति में बदलाव की एक वजह रूस भी है. पिछले डेढ़-दो साल में रूस की तालिबान से नजदीकियां काफी बढ़ी हैं, जिन्हें रूस ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार भी किया है. उसका कहना है कि वह इस्लामिक स्टेट से लड़ने के लिए ऐसा कर रहा है. रूस न सिर्फ अफगानिस्तान में आईएस से लड़ने में तालिबान की मदद कर रहा है बल्कि, अफगानिस्तान में शांति के लिए पुरजोर प्रयास भी कर रहा है. बीते महीने रूस अफगानिस्तान की सरकार और तालिबान के बीच बैठक करवाने में भी कामयाब हो गया. मॉस्को में हुई इस बैठक में भारत, अमेरिका, चीन और पाकिस्तान सहित 12 देश शामिल हुए. यह पहला मौका था जब ये सभी देश तालिबान के नेताओं के साथ एक मेज पर दिखे.

अंतरराष्ट्रीय जानकारों के मुताबिक तालिबान को रूस का साथ मिलना उसके लिए हर तरह से बेहतर साबित हो रहा है. रूस से करीबियां बढ़ने के बाद से तालिबान कूटनीतिक और सैन्य दोनों तरह से मजबूत हुआ है. बीते एक साल में जिस तरह से उसकी सैन्य ताकत में इजाफा हुआ है उसके पीछे भी रूस का हाथ माना जा रहा. पश्चिमी देशों की एजेंसियों ने कई बार कहा भी है कि रूस तालिबान को अत्याधुनिक हथियार बेच रहा है जिससे तालिबान की ताकत में अचानक बढ़ोत्तरी हुई है. हाल के महीनों में तालिबान ने अमेरिका और नाटो की फौजों को चौंकाते हुए रणनीतिक रूप से काफी अहम माने जाने वाले फरीयाब और गज़नी जैसे प्रान्तों पर भी कब्जा जमा लिया.

उधर, अमेरिका को रूस और तालिबान की नजदीकियों ने खासा परेशान कर रखा है. अमेरिकी अधिकारियों को लगता है कि अगर रूस ने बातचीत के जरिए अफगानिस्तान जैसा बड़ा मसला हल करवा दिया तो रूस का कद बढ़ना और अमेरिका की किरकिरी होना स्वाभाविक है. और सबसे बड़ी बात कि यह कहीं न कहीं अमेरिका की बादशाहत के लिए खतरा होगा. इसके अलावा अमेरिका को यह भी लगता है कि वह जिस तालिबान को अफगानिस्तान से बीते डेढ़ दशकों में नहीं हटा सका, उसे रूस की मदद मिलने के बाद युद्ध में शिकस्त देना नामुमकिन हो जाएगा. जानकारों की मानें तो इन्हीं सब वजहों के चलते अमेरिका जल्द से जल्द अफगानिस्तान के मुद्दे को बातचीत के जरिये सुलझाना चाहता है.

 

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